मुझे जब मार ही डाला तो अब दोनों बराबर हैं
उड़ाओ ख़ाक सरसर बन के या बाद-ए-सबा बन कर
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किस तरह कर दिया दिल-ए-नाज़ुक को चूर-चूर
बाज़ी पे दिल लगा है कोई दिल-लगी नहीं
न आया कर के व'अदा वस्ल का इक़रार था क्या था
मख़्लूक़ को तुम्हारी मोहब्बत में ऐ बुतो
हज़ार शर्म करो वस्ल में हज़ार लिहाज़
किसी के संग-ए-दर से एक मुद्दत सर नहीं उट्ठा
बद-क़िस्मतों को गर हो मयस्सर शब-ए-विसाल
ज़बाँ है बे-ख़बर और बे-ज़बाँ दिल
जो चार आदमियों में गुनाह करते हैं
मर चुका मैं तो नहीं इस से मुझे कुछ हासिल
ग़रीब आदमी को ठाट पादशाही का
मुझ को क्या फ़ाएदा गर कोई रहा मेरे ब'अद