मख़्लूक़ को तुम्हारी मोहब्बत में ऐ बुतो
ईमान का ख़याल न इस्लाम का लिहाज़
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मुझ को क्या फ़ाएदा गर कोई रहा मेरे ब'अद
किसी के संग-ए-दर से एक मुद्दत सर नहीं उट्ठा
नेक-ओ-बद की जिसे ख़बर ही नहीं
फैला हुआ है बाग़ में हर सम्त नूर-व-सुब्ह
उसी दिन से मुझे दोनों की बर्बादी का ख़तरा था
ऐ सबा चलती है क्यूँ इस दर्जा इतराई हुई
ग़रीब आदमी को ठाट पादशाही का
निकले हैं घर से देखने को लोग माह-ए-ईद
दिए जाएँगे कब तक शैख़-साहिब कुफ़्र के फ़तवे
न आया कर के व'अदा वस्ल का इक़रार था क्या था
वाइ'ज़ को लअ'न-तअ'न की फ़ुर्सत है किस तरह
हज़ार शर्म करो वस्ल में हज़ार लिहाज़