क्यूँ उजाड़ा ज़ाहिदो बुत-ख़ाना-ए-आबाद को
मस्जिदें काफ़ी न होतीं क्या ख़ुदा की याद को
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ज़ाहिद सँभल ग़ुरूर ख़ुदा को नहीं पसंद
अब कोई तिरा मिस्ल नहीं नाज़-ओ-अदा में
मर चुका मैं तो नहीं इस से मुझे कुछ हासिल
पौ फटते ही 'रियाज़' जहाँ ख़ुल्द बन गया
देखने वाले ये कहते हैं किताब-ए-दहर में
पोशाक न तू पहनियो ऐ सर्व-ए-रवाँ सुर्ख़
मुझ को दुनिया की तमन्ना है न दीं का लालच
ख़ुदा के फ़ज़्ल से हम हक़ पे हैं बातिल से क्या निस्बत
अहल-ए-दुनिया बावले हैं बावलों की तू न सुन
देखो तो ज़रा ग़ज़ब ख़ुदा का
महफ़िल में ग़ैर ही को न हर बार देखना
बहुत ही साफ़-ओ-शफ़्फ़ाफ़ आ गया तक़दीर से काग़ज़