किस तरह कर दिया दिल-ए-नाज़ुक को चूर-चूर
इस वाक़िआ' की ख़ाक है पत्थर को इत्तिलाअ'
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खिलाया परतव-ए-रुख़्सार ने क्या गुल समुंदर में
जिस तरह दो-जहाँ में ख़ुदा का नहीं शरीक
पी बादा-ए-अहमर तो ये कहने लगा गुल-रू
नए ग़म्ज़े नए अंदाज़ नज़र आते हैं
बहुत से ज़मीं में दबाए गए हैं
मुझ को क्या फ़ाएदा गर कोई रहा मेरे ब'अद
दिलवाइए बोसा ध्यान भी है
मैं चुप कम रहा और रोया ज़ियादा
अब कोई तिरा मिस्ल नहीं नाज़-ओ-अदा में
मख़्लूक़ को तुम्हारी मोहब्बत में ऐ बुतो
नर्गिसीं आँख भी है अबरू-ए-ख़मदार के पास