जाँ घुल चुकी है ग़म में इक तन है वो भी मोहमल
मअ'नी नहीं हैं बिल्कुल मुझ में अगर बयाँ हूँ
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मैं चुप कम रहा और रोया ज़ियादा
अहल-ए-दुनिया बावले हैं बावलों की तू न सुन
मुद्दत से इश्तियाक़ है बोस-ओ-कनार का
नेक-ओ-बद की जिसे ख़बर ही नहीं
किस तरह कर दिया दिल-ए-नाज़ुक को चूर-चूर
निकाली जाए किस तरकीब से तक़रीर की सूरत
नर्गिसीं आँख भी है अबरू-ए-ख़मदार के पास
सुनते सुनते वाइ'ज़ों से हज्व-ए-मय
हिज्र में ग़म की चढ़ाई है इलाही तौबा
नए ग़म्ज़े नए अंदाज़ नज़र आते हैं
ऐ सबा चलती है क्यूँ इस दर्जा इतराई हुई
ग़रीब आदमी को ठाट पादशाही का