होती न शरीअ'त में परस्तिश कभी ममनूअ
गर पहले भी बुतख़ानों में होते सनम ऐसे
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दिलवाइए बोसा ध्यान भी है
नर्गिसीं आँख भी है अबरू-ए-ख़मदार के पास
ज़ाहिद सँभल ग़ुरूर ख़ुदा को नहीं पसंद
उसी दिन से मुझे दोनों की बर्बादी का ख़तरा था
पौ फटते ही 'रियाज़' जहाँ ख़ुल्द बन गया
मुझ को क्या फ़ाएदा गर कोई रहा मेरे ब'अद
मुद्दत से इश्तियाक़ है बोस-ओ-कनार का
मुतकब्बिर न हो ज़रदार बड़ी मुश्किल है
किसी की किसी को मोहब्बत नहीं है
दिल में तीर-ए-इश्क़ है और फ़र्क़ पर शमशीर-ए-इश्क़
वो ही आसान करेगा मिरी दुश्वारी को
हज़ार शर्म करो वस्ल में हज़ार लिहाज़