इक अदना सा पर्दा है इक अदना सा तफ़ावुत
मख़्लूक़ में माबूद में बंदे में ख़ुदा में
Allama Iqbal
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ख़ाक कर डालें अभी चाहें तो मय-ख़ाने को हम
भेज तो दी है ग़ज़ल देखिए ख़ुश हों कि न हों
ज़ाहिद सँभल ग़ुरूर ख़ुदा को नहीं पसंद
जो दिल मिरा नहीं मुझे उस दिल से क्या ग़रज़
निकाली जाए किस तरकीब से तक़रीर की सूरत
बाल रुख़्सारों से जब उस ने हटाए तो खुला
सुनते सुनते वाइ'ज़ों से हज्व-ए-मय
हवा में जब उड़ा पर्दा तो इक बिजली सी कौंदी थी
कभी न जाएगा आशिक़ से देख-भाल का रोग
महफ़िल में ग़ैर ही को न हर बार देखना
है अपने क़त्ल की दिल-ए-मुज़्तर को इत्तिलाअ
खिलाया परतव-ए-रुख़्सार ने क्या गुल समुंदर में