दिलवाइए बोसा ध्यान भी है
इस क़र्ज़ा-ए-वाजिब-उल-अदा का
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मुद्दत से इश्तियाक़ है बोस-ओ-कनार का
ऐ सबा चलती है क्यूँ इस दर्जा इतराई हुई
बहुत दिन दर्स-ए-उल्फ़त में कटे हैं
नेक-ओ-बद की जिसे ख़बर ही नहीं
दिए जाएँगे कब तक शैख़-साहिब कुफ़्र के फ़तवे
दिल में तीर-ए-इश्क़ है और फ़र्क़ पर शमशीर-ए-इश्क़
खिलाया परतव-ए-रुख़्सार ने क्या गुल समुंदर में
बद-क़िस्मतों को गर हो मयस्सर शब-ए-विसाल
मिरी क़िस्मत लिखी जाती थी जिस दिन मैं अगर होता
महफ़िल में ग़ैर ही को न हर बार देखना
पहलू-ओ-पुश्त-ओ-सीना-ओ-रुख़्सार आइना
न आया कर के व'अदा वस्ल का इक़रार था क्या था