देखने वाले ये कहते हैं किताब-ए-दहर में
तू सरापा हुस्न का नक़्शा है मैं तस्वीर-ए-इश्क़
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ख़ुदा के फ़ज़्ल से हम हक़ पे हैं बातिल से क्या निस्बत
वो ही आसान करेगा मिरी दुश्वारी को
मैं चुप रहूँ तो गोया रंज-ओ-ग़म-ए-निहाँ हूँ
ग़रीब आदमी को ठाट पादशाही का
फैला हुआ है बाग़ में हर सम्त नूर-व-सुब्ह
वक़्त पर आते हैं न जाते हैं
फ़र्क़ क्या मक़्तल में और गुलज़ार में
ख़ाक कर डालें अभी चाहें तो मय-ख़ाने को हम
हज़ार शर्म करो वस्ल में हज़ार लिहाज़
बहुत ही साफ़-ओ-शफ़्फ़ाफ़ आ गया तक़दीर से काग़ज़
ऐ सबा चलती है क्यूँ इस दर्जा इतराई हुई
बाल रुख़्सारों से जब उस ने हटाए तो खुला