बद-क़िस्मतों को गर हो मयस्सर शब-ए-विसाल
सूरज ग़ुरूब होते ही ज़ाहिर हो नूर-ए-सुब्ह
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दिए जाएँगे कब तक शैख़-साहिब कुफ़्र के फ़तवे
अब कोई तिरा मिस्ल नहीं नाज़-ओ-अदा में
मुझे जब मार ही डाला तो अब दोनों बराबर हैं
मैं चुप कम रहा और रोया ज़ियादा
वो ही आसान करेगा मिरी दुश्वारी को
बाज़ी पे दिल लगा है कोई दिल-लगी नहीं
नेक-ओ-बद की जिसे ख़बर ही नहीं
होती न शरीअ'त में परस्तिश कभी ममनूअ
बहुत दिन दर्स-ए-उल्फ़त में कटे हैं
देखने वाले ये कहते हैं किताब-ए-दहर में
फ़र्क़ क्या मक़्तल में और गुलज़ार में
दिल पुकारा फँस के कू-ए-यार में