अहल-ए-दुनिया बावले हैं बावलों की तू न सुन
नींद उड़ाता हो जो अफ़्साना उस अफ़्साना से भाग
Allama Iqbal
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हवा में जब उड़ा पर्दा तो इक बिजली सी कौंदी थी
बाल रुख़्सारों से जब उस ने हटाए तो खुला
वो ही आसान करेगा मिरी दुश्वारी को
देखने वाले ये कहते हैं किताब-ए-दहर में
निकले हैं घर से देखने को लोग माह-ए-ईद
ठहर जाओ बोसे लेने दो न तोड़ो सिलसिला
उसी दिन से मुझे दोनों की बर्बादी का ख़तरा था
किसी के संग-ए-दर से एक मुद्दत सर नहीं उट्ठा
खिलाया परतव-ए-रुख़्सार ने क्या गुल समुंदर में
किस तरह कर दिया दिल-ए-नाज़ुक को चूर-चूर
जो दिल मिरा नहीं मुझे उस दिल से क्या ग़रज़
जाँ घुल चुकी है ग़म में इक तन है वो भी मोहमल