अगर लोहे के गुम्बद में रखेंगे अक़रबा उन को
वहीं पहुँचाएगा आशिक़ किसी तदबीर से काग़ज़
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पौ फटते ही 'रियाज़' जहाँ ख़ुल्द बन गया
ग़रीब आदमी को ठाट पादशाही का
कुछ तबीअत आज-कल पाता हूँ घबराई हुई
ऐ सबा चलती है क्यूँ इस दर्जा इतराई हुई
दिलवाइए बोसा ध्यान भी है
मुतकब्बिर न हो ज़रदार बड़ी मुश्किल है
भेज तो दी है ग़ज़ल देखिए ख़ुश हों कि न हों
वो ही आसान करेगा मिरी दुश्वारी को
मुझे जब मार ही डाला तो अब दोनों बराबर हैं
वक़्त पर आते हैं न जाते हैं
सुनते सुनते वाइ'ज़ों से हज्व-ए-मय
मख़्लूक़ को तुम्हारी मोहब्बत में ऐ बुतो