जिस तरह दो-जहाँ में ख़ुदा का नहीं शरीक
जिस तरह दो-जहाँ में ख़ुदा का नहीं शरीक
तेरे जमाल में नहीं कोई हसीं शरीक
मैं भी तिरा फ़िदाई हूँ मुझ पे भी रहम खा
जब तक है इस गुमान में कुछ कुछ यक़ीं शरीक
उस के सितम ही कम हैं जो औरों का नाम लूँ
है आसमाँ शरीक न इस में ज़मीं शरीक
रोज़-ए-जज़ा उम्मीद है सब को सज़ा मिले
इक़दाम-ए-क़त्ल में हैं मिरे सब हसीं शरीक
ऐ बद्र तेरा दावा-ए-यकताई सब ग़लत
जुमला सिफ़ात में है तिरे वो जबीं शरीक
सच पूछिए तो जान-ए-जहाँ मेरे क़त्ल में
तिरछी नज़र के साथ ही चीन-ए-जबीं शरीक
वाइज़ तू बाग़-ए-हुस्न की इक बार सैर कर
मुमकिन है दिलकशी में हो ख़ुल्द-ए-बरीं शरीक
क्या वज्ह तेरे ज़ुल्म-ओ-सितम में मज़ा नहीं
ऐ दौर-ए-चर्ख़ आज वो शायद नहीं शरीक
भेजा पयाम-ए-जल्सा तो अंदाज़ से कहा
अर्सा हुआ कि हम नहीं होते कहीं शरीक
'परवीं' ग़लत है उन को समझना जुदा जुदा
हैं जिस्म-ओ-जाँ की तरह से दुनिया-ओ-दीं शरीक
(391) Peoples Rate This