परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़ कविता, ग़ज़ल तथा कविताओं का परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़ (page 1)
नाम | परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़ |
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अंग्रेज़ी नाम | Parveen Umm-e-Mushtaq |
ज़ाहिद सँभल ग़ुरूर ख़ुदा को नहीं पसंद
वो ही आसान करेगा मिरी दुश्वारी को
वाइ'ज़ को लअ'न-तअ'न की फ़ुर्सत है किस तरह
उसी दिन से मुझे दोनों की बर्बादी का ख़तरा था
ठहर जाओ बोसे लेने दो न तोड़ो सिलसिला
सुनते सुनते वाइ'ज़ों से हज्व-ए-मय
पी बादा-ए-अहमर तो ये कहने लगा गुल-रू
पौ फटते ही 'रियाज़' जहाँ ख़ुल्द बन गया
निकले हैं घर से देखने को लोग माह-ए-ईद
न आया कर के व'अदा वस्ल का इक़रार था क्या था
मुझे जब मार ही डाला तो अब दोनों बराबर हैं
मुद्दत से इश्तियाक़ है बोस-ओ-कनार का
मिरी क़िस्मत लिखी जाती थी जिस दिन मैं अगर होता
मर चुका मैं तो नहीं इस से मुझे कुछ हासिल
मख़्लूक़ को तुम्हारी मोहब्बत में ऐ बुतो
क्यूँ उजाड़ा ज़ाहिदो बुत-ख़ाना-ए-आबाद को
कुछ तो कमी हो रोज़-ए-जज़ा के अज़ाब में
किसी के संग-ए-दर से एक मुद्दत सर नहीं उट्ठा
किस तरह कर दिया दिल-ए-नाज़ुक को चूर-चूर
कभी न जाएगा आशिक़ से देख-भाल का रोग
जुनूँ होता है छा जाती है हैरत
जाँ घुल चुकी है ग़म में इक तन है वो भी मोहमल
होती न शरीअ'त में परस्तिश कभी ममनूअ
हवा में जब उड़ा पर्दा तो इक बिजली सी कौंदी थी
गर आप पहले रिश्ता-ए-उल्फ़त न तोड़ते
फ़र्क़ क्या मक़्तल में और गुलज़ार में
इक अदना सा पर्दा है इक अदना सा तफ़ावुत
दिए जाएँगे कब तक शैख़-साहिब कुफ़्र के फ़तवे
दिलवाइए बोसा ध्यान भी है
देखने वाले ये कहते हैं किताब-ए-दहर में