परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़ कविता, ग़ज़ल तथा कविताओं का परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़

परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़ कविता, ग़ज़ल तथा कविताओं का परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
नामपरवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
अंग्रेज़ी नामParveen Umm-e-Mushtaq

ज़ाहिद सँभल ग़ुरूर ख़ुदा को नहीं पसंद

वो ही आसान करेगा मिरी दुश्वारी को

वाइ'ज़ को लअ'न-तअ'न की फ़ुर्सत है किस तरह

उसी दिन से मुझे दोनों की बर्बादी का ख़तरा था

ठहर जाओ बोसे लेने दो न तोड़ो सिलसिला

सुनते सुनते वाइ'ज़ों से हज्व-ए-मय

पी बादा-ए-अहमर तो ये कहने लगा गुल-रू

पौ फटते ही 'रियाज़' जहाँ ख़ुल्द बन गया

निकले हैं घर से देखने को लोग माह-ए-ईद

न आया कर के व'अदा वस्ल का इक़रार था क्या था

मुझे जब मार ही डाला तो अब दोनों बराबर हैं

मुद्दत से इश्तियाक़ है बोस-ओ-कनार का

मिरी क़िस्मत लिखी जाती थी जिस दिन मैं अगर होता

मर चुका मैं तो नहीं इस से मुझे कुछ हासिल

मख़्लूक़ को तुम्हारी मोहब्बत में ऐ बुतो

क्यूँ उजाड़ा ज़ाहिदो बुत-ख़ाना-ए-आबाद को

कुछ तो कमी हो रोज़-ए-जज़ा के अज़ाब में

किसी के संग-ए-दर से एक मुद्दत सर नहीं उट्ठा

किस तरह कर दिया दिल-ए-नाज़ुक को चूर-चूर

कभी न जाएगा आशिक़ से देख-भाल का रोग

जुनूँ होता है छा जाती है हैरत

जाँ घुल चुकी है ग़म में इक तन है वो भी मोहमल

होती न शरीअ'त में परस्तिश कभी ममनूअ

हवा में जब उड़ा पर्दा तो इक बिजली सी कौंदी थी

गर आप पहले रिश्ता-ए-उल्फ़त न तोड़ते

फ़र्क़ क्या मक़्तल में और गुलज़ार में

इक अदना सा पर्दा है इक अदना सा तफ़ावुत

दिए जाएँगे कब तक शैख़-साहिब कुफ़्र के फ़तवे

दिलवाइए बोसा ध्यान भी है

देखने वाले ये कहते हैं किताब-ए-दहर में

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