ज़ुल्म सहना भी तो ज़ालिम की हिमायत ठहरा
ख़ामुशी भी तो हुई पुश्त-पनाही की तरह
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क़ैद में गुज़रेगी जो उम्र बड़े काम की थी
गए जनम की सदा
जिज़्या
बंद कर के मिरी आँखें वो शरारत से हँसे
इक नाम क्या लिखा तिरा साहिल की रेत पर
जुदाई की पहली रात
चाँद रात
कुछ तो तिरे मौसम ही मुझे रास कम आए
क़दमों में भी तकान थी घर भी क़रीब था
एक मंज़र
ख़ुद से मिलने की फ़ुर्सत किसे थी
कमाल-ए-ज़ब्त को ख़ुद भी तो आज़माऊँगी