ये क्या कि वो जब चाहे मुझे छीन ले मुझ से
अपने लिए वो शख़्स तड़पता भी तो देखूँ
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शाम आई तिरी यादों के सितारे निकले
तू बदलता है तो बे-साख़्ता मेरी आँखें
उस ने जलती हुई पेशानी पे जब हाथ रखा
ज़ूद-पशीमान
तेरे पैमाने में गर्दिश नहीं बाक़ी साक़ी
ताज़ा मोहब्बतों का नशा जिस्म-ओ-जाँ में है
बख़्त से कोई शिकायत है न अफ़्लाक से है
शाम पड़ते ही किसी शख़्स की याद
हवा महक उठी रंग-ए-चमन बदलने लगा
नहीं नहीं ये ख़बर दुश्मनों ने दी होगी
अक्स-ए-ख़ुशबू हूँ बिखरने से न रोके कोई
खुली आँखों में सपना झाँकता है