यही वो दिन थे जब इक दूसरे को पाया था
हमारी साल-गिरह ठीक अब के माह में है
Wasi Shah
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Allama Iqbal
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Rahat Indori
Jaun Eliya
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मेरी तलब था एक शख़्स वो जो नहीं मिला तो फिर
चारासाज़ों की अज़िय्यत नहीं देखी जाती
बजा कि आँख में नींदों के सिलसिले भी नहीं
शुगून
दुश्मनों के साथ मेरे दोस्त भी आज़ाद हैं
इल्ज़ाम था दिए पे न तक़्सीर रात की
कमाल-ए-ज़ब्त को ख़ुद भी तो आज़माऊँगी
एक दोस्त के नाम
गुलाब हाथ में हो आँख में सितारा हो
सुंदर कोमल सपनों की बारात गुज़र गई जानाँ
इतने घने बादल के पीछे
दिल का क्या है वो तो चाहेगा मुसलसल मिलना