वो मेरे पाँव को छूने झुका था जिस लम्हे
जो माँगता उसे देती अमीर ऐसी थी
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शब की तन्हाई में अब तो अक्सर
बख़्त से कोई शिकायत है न अफ़्लाक से है
पूरा दुख और आधा चाँद
वो हम नहीं जिन्हें सहना ये जब्र आ जाता
चलने का हौसला नहीं रुकना मुहाल कर दिया
जुगनू को दिन के वक़्त परखने की ज़िद करें
बारहा तेरा इंतिज़ार किया
थक गया है दिल-ए-वहशी मिरा फ़रियाद से भी
जिज़्या
जुस्तुजू खोए हुओं की उम्र भर करते रहे
कभी कभार उसे देख लें कहीं मिल लें
ज़िंदगी बे-साएबाँ बे-घर कहीं ऐसी न थी