उस ने जलती हुई पेशानी पे जब हाथ रखा
रूह तक आ गई तासीर मसीहाई की
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मैं सच कहूँगी मगर फिर भी हार जाऊँगी
ख़्वाब
रस्ते में मिल गया तो शरीक-ए-सफ़र न जान
गए जनम की सदा
जुगनू को दिन के वक़्त परखने की ज़िद करें
मर भी जाऊँ तो कहाँ लोग भुला ही देंगे
हुस्न के समझने को उम्र चाहिए जानाँ
गए मौसम में जो खिलते थे गुलाबों की तरह
तिरी चाहत के भीगे जंगलों में
ए'तिराफ़
बोझ उठाए हुए फिरती है हमारा अब तक
एक मंज़र