तुझे मनाऊँ कि अपनी अना की बात सुनूँ
उलझ रहा है मिरे फ़ैसलों का रेशम फिर
Wasi Shah
Allama Iqbal
Faiz Ahmad Faiz
Ahmad Faraz
Gulzar
Parveen Shakir
Jaun Eliya
Mohsin Naqvi
Javed Akhtar
Mir Taqi Mir
Rahat Indori
Anwar Masood
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(1147) Peoples Rate This
मसअला जब भी चराग़ों का उठा
जला दिया शजर-ए-जाँ कि सब्ज़-बख़्त न था
मेरे चेहरे पे ग़ज़ल लिखती गईं
रफ़ाक़तों के नए ख़्वाब ख़ुशनुमा हैं मगर
नम हैं पलकें तिरी ऐ मौज-ए-हवा रात के साथ
शब वही लेकिन सितारा और है
उस ने जलती हुई पेशानी पे जब हाथ रखा
अपनी तन्हाई मिरे नाम पे आबाद करे
वो मेरे पाँव को छूने झुका था जिस लम्हे
घर आप ही जगमगा उठेगा
मेरी चादर तो छिनी थी शाम की तन्हाई में
गए मौसम में जो खिलते थे गुलाबों की तरह