तू बदलता है तो बे-साख़्ता मेरी आँखें
अपने हाथों की लकीरों से उलझ जाती हैं
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समुंदरों के उधर से कोई सदा आई
तेरे तोहफ़े तो सब अच्छे हैं मगर मौज-ए-बहार
मैं फ़क़त चलती रही मंज़िल को सर उस ने किया
सिर्फ़ इस तकब्बुर में उस ने मुझ को जीता था
कमाल-ए-ज़ब्त को ख़ुद भी तो आज़माऊँगी
हम तो समझे थे कि इक ज़ख़्म है भर जाएगा
वक़्त-ए-रुख़्सत आ गया दिल फिर भी घबराया नहीं
चारासाज़ों की अज़िय्यत नहीं देखी जाती
बस ये हुआ कि उस ने तकल्लुफ़ से बात की
मेरी चादर तो छिनी थी शाम की तन्हाई में
अब इतनी सादगी लाएँ कहाँ से
चेहरा ओ नाम एक साथ आज न याद आ सके