सुपुर्द कर के उसे चाँदनी के हाथों में
मैं अपने घर के अँधेरों को लौट आऊँगी
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तराश कर मिरे बाज़ू उड़ान छोड़ गया
ज़ुल्म सहना भी तो ज़ालिम की हिमायत ठहरा
यूँ देखना उस को कि कोई और न देखे
उस ने जलती हुई पेशानी पे जब हाथ रखा
डसने लगे हैं ख़्वाब मगर किस से बोलिए
ज़ूद-पशीमान
देने वाले की मशिय्यत पे है सब कुछ मौक़ूफ़
जगा सके न तिरे लब लकीर ऐसी थी
रफ़ाक़तों का मिरी उस को ध्यान कितना था
चाँद रात
शुगून
मक़्तल-ए-वक़्त में ख़ामोश गवाही की तरह