शाम पड़ते ही किसी शख़्स की याद
कूचा-ए-जाँ में सदा करती है
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ज़ुल्म सहना भी तो ज़ालिम की हिमायत ठहरा
सिर्फ़ एक लड़की
अोथेलो
गवाही कैसे टूटती मुआ'मला ख़ुदा का था
दुख नविश्ता है तो आँधी को लिखा आहिस्ता
मुमकिना फ़ैसलों में एक हिज्र का फ़ैसला भी था
सभी गुनाह धुल गए सज़ा ही और हो गई
अगरचे तुझ से बहुत इख़्तिलाफ़ भी न हुआ
सुपुर्द कर के उसे चाँदनी के हाथों में
कमाल-ए-ज़ब्त को ख़ुद भी तो आज़माऊँगी
वो कहीं भी गया लौटा तो मिरे पास आया
जब साज़ की लय बदल गई थी