शब की तन्हाई में अब तो अक्सर
गुफ़्तुगू तुझ से रहा करती है
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वक़्त-ए-रुख़्सत आ गया दिल फिर भी घबराया नहीं
ज़िंदगी मेरी थी लेकिन अब तो
दुख नविश्ता है तो आँधी को लिखा आहिस्ता
यही वो दिन थे जब इक दूसरे को पाया था
वो हम नहीं जिन्हें सहना ये जब्र आ जाता
ग़ैर-मुमकिन है तिरे घर के गुलाबों का शुमार
लेकिन बड़ी देर हो चुकी थी
कुछ तो हवा भी सर्द थी कुछ था तिरा ख़याल भी
न जाने कौन सा आसेब दिल में बस्ता है
मैं सच कहूँगी मगर फिर भी हार जाऊँगी
तेरे पैमाने में गर्दिश नहीं बाक़ी साक़ी