रुख़्सत करने के आदाब निभाने ही थे
बंद आँखों से उस को जाता देख लिया है
Habib Jalib
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कमाल-ए-ज़ब्त को ख़ुद भी तो आज़माऊँगी
सिर्फ़ एक लड़की
यूँ बिछड़ना भी बहुत आसाँ न था उस से मगर
जगा सके न तिरे लब लकीर ऐसी थी
मशवरा
गवाही कैसे टूटती मुआमला ख़ुदा का था
रंग ख़ुश-बू में अगर हल हो जाए
अब भला छोड़ के घर क्या करते
धनक धनक मिरी पोरों के ख़्वाब कर देगा
जला दिया शजर-ए-जाँ कि सब्ज़-बख़्त न था
हुस्न के समझने को उम्र चाहिए जानाँ
इल्ज़ाम था दिए पे न तक़्सीर रात की