रस्ते में मिल गया तो शरीक-ए-सफ़र न जान
जो छाँव मेहरबाँ हो उसे अपना घर न जान
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अब तो इस राह से वो शख़्स गुज़रता भी नहीं
कुछ फ़ैसला तो हो कि किधर जाना चाहिए
धूप सात रंगों में फैलती है आँखों पर
कुछ तो हवा भी सर्द थी कुछ था तिरा ख़याल भी
कौन जाने कि नए साल में तू किस को पढ़े
अश्क आँख में फिर अटक रहा है
जब साज़ की लय बदल गई थी
वाहिमा
एक मंज़र
इक नाम क्या लिखा तिरा साहिल की रेत पर
तेरा घर और मेरा जंगल भीगता है साथ साथ
ख़ुद से मिलने की फ़ुर्सत किसे थी