रफ़ाक़तों के नए ख़्वाब ख़ुशनुमा हैं मगर
गुज़र चुका है तिरे ए'तिबार का मौसम
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डसने लगे हैं ख़्वाब मगर किस से बोलिए
मक़्तल-ए-वक़्त में ख़ामोश गवाही की तरह
ख़्वाब
चराग़-ए-राह बुझा क्या कि रहनुमा भी गया
रुकी हुई है अभी तक बहार आँखों में
इक नाम क्या लिखा तिरा साहिल की रेत पर
एक मंज़र
जिस जा मकीन बनने के देखे थे मैं ने ख़्वाब
अक्स-ए-ख़ुशबू हूँ बिखरने से न रोके कोई
हुस्न के समझने को उम्र चाहिए जानाँ
बोझ उठाते हुए फिरती है हमारा अब तक
अपने क़ातिल की ज़ेहानत से परेशान हूँ मैं