क़दमों में भी तकान थी घर भी क़रीब था
पर क्या करें कि अब के सफ़र ही अजीब था
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सुपुर्द कर के उसे चाँदनी के हाथों में
मुमकिना फ़ैसलों में एक हिज्र का फ़ैसला भी था
ख़ुद अपने से मिलने का तो यारा न था मुझ में
हर्फ़-ए-ताज़ा नई ख़ुशबू में लिखा चाहता है
अजब नहीं है कि दिल पर जमी मिली काई
गए जनम की सदा
कमाल-ए-ज़ब्त को ख़ुद भी तो आज़माऊँगी
कुछ फ़ैसला तो हो कि किधर जाना चाहिए
जुगनू को दिन के वक़्त परखने की ज़िद करें
शाम पड़ते ही किसी शख़्स की याद
कौन जाने कि नए साल में तू किस को पढ़े
बाब-ए-हैरत से मुझे इज़्न-ए-सफ़र होने को है