पास जब तक वो रहे दर्द थमा रहता है
फैलता जाता है फिर आँख के काजल की तरह
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इक हुनर था कमाल था क्या था
हाथ मेरे भूल बैठे दस्तकें देने का फ़न
अब उन दरीचों पे गहरे दबीज़ पर्दे हैं
उस ने जलती हुई पेशानी पे जब हाथ रखा
कमाल-ए-ज़ब्त को ख़ुद भी तो आज़माऊँगी
दुख नविश्ता है तो आँधी को लिखा आहिस्ता
चराग़-ए-राह बुझा क्या कि रहनुमा भी गया
धनक धनक मिरी पोरों के ख़्वाब कर देगा
बादबाँ खुलने से पहले का इशारा देखना
मैं फ़क़त चलती रही मंज़िल को सर उस ने किया
दुश्मनों के साथ मेरे दोस्त भी आज़ाद हैं
सुपुर्द कर के उसे चाँदनी के हाथों में