न जाने कौन सा आसेब दिल में बस्ता है
कि जो भी ठहरा वो आख़िर मकान छोड़ गया
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अजब नहीं है कि दिल पर जमी मिली काई
वो बाग़ में मेरा मुंतज़िर था
वक़्त-ए-रुख़्सत आ गया दिल फिर भी घबराया नहीं
तुझे मनाऊँ कि अपनी अना की बात सुनूँ
रफ़ाक़तों के नए ख़्वाब ख़ुशनुमा हैं मगर
शौक़-ए-रक़्स से जब तक उँगलियाँ नहीं खुलतीं
चलने का हौसला नहीं रुकना मुहाल कर दिया
टूटी है मेरी नींद मगर तुम को इस से क्या
कुछ फ़ैसला तो हो कि किधर जाना चाहिए
थक गया है दिल-ए-वहशी मिरा फ़रियाद से भी
अपनी तन्हाई मिरे नाम पे आबाद करे
जला दिया शजर-ए-जाँ कि सब्ज़-बख़्त न था