मेरी तलब था एक शख़्स वो जो नहीं मिला तो फिर
हाथ दुआ से यूँ गिरा भूल गया सवाल भी
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ग़ैर-मुमकिन है तिरे घर के गुलाबों का शुमार
उस ने मुझे दर-अस्ल कभी चाहा ही नहीं था
काँटों में घिरे फूल को चूम आएगी लेकिन
क़दमों में भी तकान थी घर भी क़रीब था
तू बदलता है तो बे-साख़्ता मेरी आँखें
टूटी है मेरी नींद मगर तुम को इस से क्या
पूरा दुख और आधा चाँद
एक मुश्त-ए-ख़ाक और वो भी हवा की ज़द में है
वो तो ख़ुश-बू है हवाओं में बिखर जाएगा
वो बाग़ में मेरा मुंतज़िर था
कुछ तो हवा भी सर्द थी कुछ था तिरा ख़याल भी