मेरे चेहरे पे ग़ज़ल लिखती गईं
शेर कहती हुई आँखें उस की
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अश्क आँख में फिर अटक रहा है
ताज़ा मोहब्बतों का नशा जिस्म-ओ-जाँ में है
ग़ैर मुमकिन है तिरे घर के गुलाबों का शुमार
काँप उठती हूँ मैं ये सोच के तन्हाई में
तराश कर मिरे बाज़ू उड़ान छोड़ गया
कल रात जो ईंधन के लिए कट के गिरा है
सुंदर कोमल सपनों की बारात गुज़र गई जानाँ
मैं फ़क़त चलती रही मंज़िल को सर उस ने किया
कभी कभार उसे देख लें कहीं मिल लें
अब तो इस राह से वो शख़्स गुज़रता भी नहीं
गए मौसम में जो खिलते थे गुलाबों की तरह
वो बाग़ में मेरा मुंतज़िर था