मैं उस की दस्तरस में हूँ मगर वो
मुझे मेरी रज़ा से माँगता है
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मसअला जब भी चराग़ों का उठा
वो मुझ को छोड़ के जिस आदमी के पास गया
टूटी है मेरी नींद मगर तुम को इस से क्या
इसी तरह से अगर चाहता रहा पैहम
काँप उठती हूँ मैं ये सोच के तन्हाई में
रुकी हुई है अभी तक बहार आँखों में
जुस्तुजू खोए हुओं की उम्र भर करते रहे
कू-ब-कू फैल गई बात शनासाई की
यूँ देखना उस को कि कोई और न देखे
ताज-महल
अपनी तन्हाई मिरे नाम पे आबाद करे
सभी गुनाह धुल गए सज़ा ही और हो गई