मैं सच कहूँगी मगर फिर भी हार जाऊँगी
वो झूट बोलेगा और ला-जवाब कर देगा
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ख़्वाब
मुश्किल है कि अब शहर में निकले कोई घर से
इसी में ख़ुश हूँ मिरा दुख कोई तो सहता है
डसने लगे हैं ख़्वाब मगर किस से बोलिए
जगा सके न तिरे लब लकीर ऐसी थी
जिस जा मकीन बनने के देखे थे मैं ने ख़्वाब
हवा महक उठी रंग-ए-चमन बदलने लगा
काँप उठती हूँ मैं ये सोच के तन्हाई में
अपने क़ातिल की ज़ेहानत से परेशान हूँ मैं
जिस तरह ख़्वाब मिरे हो गए रेज़ा रेज़ा
दिल का क्या है वो तो चाहेगा मुसलसल मिलना
बख़्त से कोई शिकायत है न अफ़्लाक से है