मैं फूल चुनती रही और मुझे ख़बर न हुई
वो शख़्स आ के मिरे शहर से चला भी गया
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खुली आँखों में सपना झाँकता है
कल रात जो ईंधन के लिए कट के गिरा है
दिल का क्या है वो तो चाहेगा मुसलसल मिलना
रफ़ाक़तों के नए ख़्वाब ख़ुशनुमा हैं मगर
बजा कि आँख में नींदों के सिलसिले भी नहीं
बख़्त से कोई शिकायत है न अफ़्लाक से है
क़दमों में भी तकान थी घर भी क़रीब था
तिरी चाहत के भीगे जंगलों में
शौक़-ए-रक़्स से जब तक उँगलियाँ नहीं खुलतीं
शब की तन्हाई में अब तो अक्सर
शब वही लेकिन सितारा और है
मक़्तल-ए-वक़्त में ख़ामोश गवाही की तरह