कमाल-ए-ज़ब्त को ख़ुद भी तो आज़माऊँगी
मैं अपने हाथ से उस की दुल्हन सजाऊँगी
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बख़्त से कोई शिकायत है न अफ़्लाक से है
ज़िंदगी बे-साएबाँ बे-घर कहीं ऐसी न थी
कुछ तो तिरे मौसम ही मुझे रास कम आए
क़र्या-ए-जाँ में कोई फूल खिलाने आए
थक गया है दिल-ए-वहशी मिरा फ़रियाद से भी
रात के शायद एक बजे हैं
तेरे तोहफ़े तो सब अच्छे हैं मगर मौज-ए-बहार
कू-ब-कू फैल गई बात शनासाई की
ये हवा कैसे उड़ा ले गई आँचल मेरा
यही वो दिन थे जब इक दूसरे को पाया था
इतने घने बादल के पीछे
ख़ुद से मिलने की फ़ुर्सत किसे थी