कभी कभार उसे देख लें कहीं मिल लें
ये कब कहा था कि वो ख़ुश-बदन हमारा हो
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बख़्त से कोई शिकायत है न अफ़्लाक से है
मसअला
चारासाज़ों की अज़िय्यत नहीं देखी जाती
तू बदलता है तो बे-साख़्ता मेरी आँखें
बदन के कर्ब को वो भी समझ न पाएगा
चलने का हौसला नहीं रुकना मुहाल कर दिया
जिस तरह ख़्वाब मिरे हो गए रेज़ा रेज़ा
राय पहले से बना ली तू ने
रात के शायद एक बजे हैं
क्या करे मेरी मसीहाई भी करने वाला
दुआ का टूटा हुआ हर्फ़ सर्द आह में है
बस ये हुआ कि उस ने तकल्लुफ़ से बात की