जिस तरह ख़्वाब मिरे हो गए रेज़ा रेज़ा
उस तरह से न कभी टूट के बिखरे कोई
Habib Jalib
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इल्ज़ाम था दिए पे न तक़्सीर रात की
रुकी हुई है अभी तक बहार आँखों में
अब इतनी सादगी लाएँ कहाँ से
बहुत से लोग थे मेहमान मेरे घर लेकिन
गए मौसम में जो खिलते थे गुलाबों की तरह
जुस्तुजू खोए हुओं की उम्र भर करते रहे
बारहा तेरा इंतिज़ार किया
बाब-ए-हैरत से मुझे इज़्न-ए-सफ़र होने को है
तराश कर मिरे बाज़ू उड़ान छोड़ गया
कमाल-ए-ज़ब्त को ख़ुद भी तो आज़माऊँगी
अपनी रुस्वाई तिरे नाम का चर्चा देखूँ
इक हुनर था कमाल था क्या था