इतने घने बादल के पीछे
कितना तन्हा होगा चाँद
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कौन जाने कि नए साल में तू किस को पढ़े
वो न आएगा हमें मालूम था इस शाम भी
तू बदलता है तो बे-साख़्ता मेरी आँखें
गवाही कैसे टूटती मुआ'मला ख़ुदा का था
मेरी तलब था एक शख़्स वो जो नहीं मिला तो फिर
जिस तरह ख़्वाब मिरे हो गए रेज़ा रेज़ा
पास जब तक वो रहे दर्द थमा रहता है
दुश्मनों के साथ मेरे दोस्त भी आज़ाद हैं
ख़याल-ओ-ख़्वाब हुआ बर्ग-ओ-बार का मौसम
तेरा घर और मेरा जंगल भीगता है साथ साथ
तेरे तोहफ़े तो सब अच्छे हैं मगर मौज-ए-बहार
अपने क़ातिल की ज़ेहानत से परेशान हूँ मैं