हम तो समझे थे कि इक ज़ख़्म है भर जाएगा
क्या ख़बर थी कि रग-ए-जाँ में उतर जाएगा
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कू-ब-कू फैल गई बात शनासाई की
कुछ ख़बर लाई तो है बाद-ए-बहारी उस की
कभी कभार उसे देख लें कहीं मिल लें
गुलाबी पाँव मिरे चम्पई बनाने को
देने वाले की मशिय्यत पे है सब कुछ मौक़ूफ़
नम हैं पलकें तिरी ऐ मौज-ए-हवा रात के साथ
अब इतनी सादगी लाएँ कहाँ से
बोझ उठाए हुए फिरती है हमारा अब तक
बहुत रोया वो हम को याद कर के
कुछ तो हवा भी सर्द थी कुछ था तिरा ख़याल भी
अब भी बरसात की रातों में बदन टूटता है
ख़ुद अपने से मिलने का तो यारा न था मुझ में