ग़ैर-मुमकिन है तिरे घर के गुलाबों का शुमार
मेरे रिसते हुए ज़ख़्मों के हिसाबों की तरह
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काँप उठती हूँ मैं ये सोच के तन्हाई में
इतने घने बादल के पीछे
सिर्फ़ इस तकब्बुर में उस ने मुझ को जीता था
उस ने मुझे दर-अस्ल कभी चाहा ही नहीं था
जुस्तुजू खोए हुओं की उम्र भर करते रहे
अब भी बरसात की रातों में बदन टूटता है
मैं सच कहूँगी मगर फिर भी हार जाऊँगी
क्या करे मेरी मसीहाई भी करने वाला
जाने कब तक तिरी तस्वीर निगाहों में रही
ख़ुद से मिलने की फ़ुर्सत किसे थी
रुकने का समय गुज़र गया है
बजा कि आँख में नींदों के सिलसिले भी नहीं