गवाही कैसे टूटती मुआमला ख़ुदा का था
मिरा और उस का राब्ता तो हाथ और दुआ का था
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बंद कर के मिरी आँखें वो शरारत से हँसे
क़ैद में गुज़रेगी जो उम्र बड़े काम की थी
यूँ बिछड़ना भी बहुत आसाँ न था उस से मगर
हम तो समझे थे कि इक ज़ख़्म है भर जाएगा
बोझ उठाते हुए फिरती है हमारा अब तक
पज़ीराई
तेरा घर और मेरा जंगल भीगता है साथ साथ
शब वही लेकिन सितारा और है
थक गया है दिल-ए-वहशी मिरा फ़रियाद से भी
नम हैं पलकें तिरी ऐ मौज-ए-हवा रात के साथ
सभी गुनाह धुल गए सज़ा ही और हो गई
दुश्मनों के साथ मेरे दोस्त भी आज़ाद हैं