देने वाले की मशिय्यत पे है सब कुछ मौक़ूफ़
माँगने वाले की हाजत नहीं देखी जाती
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रफ़ाक़तों का मिरी उस को ध्यान कितना था
तेरे तोहफ़े तो सब अच्छे हैं मगर मौज-ए-बहार
जला दिया शजर-ए-जाँ कि सब्ज़-बख़्त न था
जुदाई की पहली रात
ताज़ा मोहब्बतों का नशा जिस्म-ओ-जाँ में है
किसी के ध्यान में डूबा हुआ दिल
अब उन दरीचों पे गहरे दबीज़ पर्दे हैं
वो हम नहीं जिन्हें सहना ये जब्र आ जाता
रात के शायद एक बजे हैं
वो मजबूरी नहीं थी ये अदाकारी नहीं है
लेकिन बड़ी देर हो चुकी थी
चलने का हौसला नहीं रुकना मुहाल कर दिया