बोझ उठाते हुए फिरती है हमारा अब तक
ऐ ज़मीं माँ तिरी ये उम्र तो आराम की थी
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क़दमों में भी तकान थी घर भी क़रीब था
बादबाँ खुलने से पहले का इशारा देखना
हर्फ़-ए-ताज़ा नई ख़ुशबू में लिखा चाहता है
इसी में ख़ुश हूँ मिरा दुख कोई तो सहता है
दरवाज़ा जो खोला तो नज़र आए खड़े वो
मसअला जब भी चराग़ों का उठा
गए जनम की सदा
शुगून
वो मेरे पाँव को छूने झुका था जिस लम्हे
शब वही लेकिन सितारा और है
बिछड़ा है जो इक बार तो मिलते नहीं देखा
लड़कियों के दुख अजब होते हैं सुख उस से अजीब