बोझ उठाए हुए फिरती है हमारा अब तक
ऐ ज़मीं माँ तिरी ये उम्र तो आराम की थी
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हम तो समझे थे कि इक ज़ख़्म है भर जाएगा
मशवरा
कैसे कह दूँ कि मुझे छोड़ दिया है उस ने
गुलाब हाथ में हो आँख में सितारा हो
शाम पड़ते ही किसी शख़्स की याद
बारहा तेरा इंतिज़ार किया
बाब-ए-हैरत से मुझे इज़्न-ए-सफ़र होने को है
अगरचे तुझ से बहुत इख़्तिलाफ़ भी न हुआ
एक मुश्त-ए-ख़ाक और वो भी हवा की ज़द में है
सभी गुनाह धुल गए सज़ा ही और हो गई
एक सूरज था कि तारों के घराने से उठा
मर भी जाऊँ तो कहाँ लोग भुला ही देंगे