बारहा तेरा इंतिज़ार किया
अपने ख़्वाबों में इक दुल्हन की तरह
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मैं सच कहूँगी मगर फिर भी हार जाऊँगी
चारासाज़ों की अज़िय्यत नहीं देखी जाती
बस ये हुआ कि उस ने तकल्लुफ़ से बात की
गए मौसम में जो खिलते थे गुलाबों की तरह
शौक़-ए-रक़्स से जब तक उँगलियाँ नहीं खुलतीं
अब भी बरसात की रातों में बदन टूटता है
दिल का क्या है वो तो चाहेगा मुसलसल मिलना
नहीं मेरा आँचल मैला है
एक मंज़र
एक्सटेसी
टूटी है मेरी नींद मगर तुम को इस से क्या
वो बाग़ में मेरा मुंतज़िर था