अपने क़ातिल की ज़ेहानत से परेशान हूँ मैं
रोज़ इक मौत नए तर्ज़ की ईजाद करे
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अब भी बरसात की रातों में बदन टूटता है
रफ़ाक़तों के नए ख़्वाब ख़ुशनुमा हैं मगर
बोझ उठाए हुए फिरती है हमारा अब तक
दुश्मनों के साथ मेरे दोस्त भी आज़ाद हैं
नए साल की पहली नज़्म
चलने का हौसला नहीं रुकना मुहाल कर दिया
बारिश हुई तो फूलों के तन चाक हो गए
एक दोस्त के नाम
क़ैद में गुज़रेगी जो उम्र बड़े काम की थी
इसी तरह से अगर चाहता रहा पैहम
तेरी ख़ुश्बू का पता करती है
कौन जाने कि नए साल में तू किस को पढ़े