अजब नहीं है कि दिल पर जमी मिली काई
बहुत दिनों से तो ये हौज़ साफ़ भी न हुआ
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अब भला छोड़ के घर क्या करते
कुछ फ़ैसला तो हो कि किधर जाना चाहिए
गए जनम की सदा
मैं फ़क़त चलती रही मंज़िल को सर उस ने किया
सभी गुनाह धुल गए सज़ा ही और हो गई
कमाल-ए-ज़ब्त को ख़ुद भी तो आज़माऊँगी
बहुत से लोग थे मेहमान मेरे घर लेकिन
इतने घने बादल के पीछे
शुगून
कभी कभार उसे देख लें कहीं मिल लें
मर भी जाऊँ तो कहाँ लोग भुला ही देंगे
कौन जाने कि नए साल में तू किस को पढ़े