अब्र बरसे तो इनायत उस की
शाख़ तो सिर्फ़ दुआ करती है
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पा-ब-गिल सब हैं रिहाई की करे तदबीर कौन
अब उन दरीचों पे गहरे दबीज़ पर्दे हैं
मेरी तलब था एक शख़्स वो जो नहीं मिला तो फिर
बजा कि आँख में नींदों के सिलसिले भी नहीं
मुमकिना फ़ैसलों में एक हिज्र का फ़ैसला भी था
ज़ूद-पशीमान
ज़िंदगी बे-साएबाँ बे-घर कहीं ऐसी न थी
हर्फ़-ए-ताज़ा नई ख़ुशबू में लिखा चाहता है
खुली आँखों में सपना झाँकता है
ताज-महल
बदन के कर्ब को वो भी समझ न पाएगा
तेरे पैमाने में गर्दिश नहीं बाक़ी साक़ी